I am re producing this part from my memoires "ye haal hai hamare krishi vishwa vidyalayo ka" for getting feed back from you learnt readers. Here i have compared, a natural phenomenon, two distinctive parasitologists who were also present in Parasitology dept veterinary college, Jabalpur when i was serving the department as demonstrator as well as doing MVSc as in-service candidate . I do not know hindi typing hence there may be some typing mistakes but i have selected hindi as it is my mother tongue-where i can express best : .
जिस समय मै परजीवी विभाग मे था मैंने एक साथ दो मशहूर परजीवी वैज्ञानिक को नजदीक से देखा और उनके अंतर को भी महसूस
किया /
इसमे पहले वैज्ञानिक थे डॉ हरीश लाल शाह - गोरा
चिट्टा रंग ,लम्बे ,न दुबले न मोटे ,थोड़े सिर के बाल उड़े हुए /
हम लोंगो का परिचय डॉ शाह से १९६५ मे हुआ था जब
हम BVSc कर रहे थे और थर्ड इयर मे परजीवी विषय भी पढाया जाता था उसी समय एक छात्र का एक आध्यापक से जैसे परिचय
होता है यह भी उसी प्रकार का था /
मुझे आज भी याद है जुलाई १९६५ / परजीवी को
path,bact,para के अध्यापको ,कभी डॉ रिछारिया ,कभी डॉ ठाकुर ने पढाया / फिर दीपावली की छुट्टी के बाद
डॉ शाह क्लास मे आये और अपना परिचय दिया /पता लगा कि पहले वह Mhow मे असिस्टेंट
प्रोफेसर थे अब प्रोफेसर पर मध्य प्रदेश
सर्विस कमीशन से प्रमोशन पाकर जबलपुर आये है / जबलपुर मे पहले
path,bact,para था अब १९६५ से उनके आने के बाद से परजीव विभाग स्वतंत्र रूप से काम करेगा /
डॉ शाह के कुछ दिन क्लास लेने पर ही बह छात्रों के चहेते बन गए /
सब कोई उनके धारा प्रवाह इंग्लिश बोलने से जैसे अभिभूत हो गया /उनका समझाने का ढंग
भी बहुत अच्छा था जिससे लडको को समझने मे भी कोई परेशानी नहीं होती थी / हालाँकि
परजीवी एक बहुत ही नीरुस बिषय माना जाता था जहाँ पैरासाइट की साइज़ याद करते रहो -और उस पर ऊटपटांग नाम –वो भी एक नहीं
बल्कि अनेक /
लेकिन
यह डॉ शाह का ही आकर्षण था की लड़के विषय को अची तरह समझने लगे / उनका यूथ को
आकर्षित करने का करिश्मा तब भी पता लगा जब १९७४ मे बह पंतनगर एसोसिएट प्रोफेसर
होकर चले गये/यह उनके पढ़ाने का तरीका ही था जिससे उस समय UG के छात्र डॉ के ऍम ल
पाठक ,डॉ देवेन्द्र कुमार आदि को MVSC परजीवी मे करने को प्रेरित किया /
लेकिन जबलपुर मे डॉ शाह कुछ ही समय रहे / फिर बह इलेनॉइस
विश्व विद्यालय ,अमेरिका पीएचडी करने चले
गए –शायद १९६६ या १९६७ मे / वहां पर
उन्होंने प्रशिद्ध वैज्ञानिक डॉ LEVINE के निर्देशन मे पीएचडी सफलता पूर्वक की और
१९७० मे जबलपुर वापिस अपने बिभाग मे आ गए /
परन्तु उनकी अनुपस्थित मे जबलपुर मे एक बहुत बड़ा
परिवर्तन हो गया था /जबलपुर का पशु चिकित्सा महाविद्यालय एक बहुत पुराना
महाविद्यालय था जिसका उद्घाटन ८ जुलाई १९४८ को सी पी एंड बरार (उस समय मध्य प्रदेश
का निर्माण नहीं हुआ था ) के पशु धन को विकसित करने के लिए किया गया था और यह पशु
पालन बिभाग के अंतर्गत किया गया था परन्तु
अक्टूबर १९६४ मे जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्व विद्यालय बनने पर यह उसके अंतर्गत आ
गया और उसके सारे नियम कायदे बदल गये/ इसमे प्रमुख था यूनिवर्सिटी प्रोफेसर के पद पैदा करना और स्टेट
प्रोफेसर (जो डॉ शाह थे ) को एसोसिएट प्रोफेसर मानकर उसपर स्ताफित करना /दूसरा बड़ा
बदलाव था कॉलेज के स्टाफ को फील्ड से अलग करना –अब कोई भी पद interchangeble नहीं
रहा /
मै १९६८ मे पशु चिकत्सा महाविद्यालय मे आ गया था
और १९६९ मे सुनने को मिला कि परजीव विभाग मे एक बहुत ही नामी,अवार्ड विनर
साइंटिस्ट ने प्रोफेसर के पद पर ज्वाइन किया है / यह थे हमारे डॉ शैलेश चन्द्र
दत्त / उस समय डॉ शाह अमेरिका मे थे और मै था
मेडिसिन विभाग मे /
मेरा डॉ दत्त से कैसे परिचय हुआ , यह भी एक अजीब संयोग रहा- जब मुझे mvsc, परजीवी मे
इन्सेर्विस अभियार्थी के रूप मे एडमिशन
मिला/ /वास्तव मे मैंने परजीवी मे अप्लाई भी नहीं किया था और मेरा मन भी नहीं था
इस विषय में mvsc करने का / इसका विस्तृत विवरण मे अन्य पुस्तक मे कर चुका हू *
/
डॉ दत्त एक मछोले कद के , कुछ सावले व्यक्तित के साइंटिस्ट थे जिनके चेहरे से शांति छलकती थी
/
मे यहाँ कह सकता हू की मुझे दो विसिस्ट व्यक्तियों
के अंतर्गत mvsc करने का अवसर मिला और
साथ ही मिला दोनों व्यक्तियों को परखने का अवसर ? यह बात सुनने मे शायद अटपटी लगती हो की कैसे
एक छात्र अपने अध्यापक को परख सकता है परन्तु यह बात बिलकुल सच है –हम न चाह कर
भी दो अध्यापको के पढ़ाने की तुलना शुरू कर देते है / मेरी यह तुलना उस लड़कपन के
महेश से कुछ अलग थी जो डॉ शाह की पर्सनालिटी , फ्लो ऑफ़ इंग्लिश से अभिभूत हो जाता
था जिसको कॉलेज मे समय विताये दो बर्ष ही हुए थे /
मैंने महसूस किया की डॉ शाह का थ्योरी पार्ट
अच्छा था –बह समझाते इस तरह से थे की आप उसको लिख सकते है –जो एक छात्र के लिए
बहुत जरुरी है ( ज्यादातर क्लास यह टीचर अपने कमरे मे ही लेते थे अत ब्लैक बोर्ड
पर कुछ लिखने का सवाल ही नहीं था ) /
जैसा की साइंस के विद्यार्थी को पता है की
प्रतेक्य विषय को दो भागो मे पढाया जाता है – एक भाग थ्योरी होता है और दूसरा
प्रैक्टिकल / डॉ शाह थ्योरी लेते थे और प्रैक्टिकल को दूसरें टीचर पर पूरी तरह छोड़
देते थे / यही कारण रहा की हमने protozoology मे स्लाइड्स के आलावा और कुछ नहीं
देखा – बाकी बाते सिर्फ किताबो मे पढ़ी /
दूसरी और डॉ दत्त helminthology पढ़ाते थे / बह
थ्योरी का पार्ट तो अच्छा पढ़ाते ही थे बल्कि प्रैक्टिकल भी स्वय करते थे / यही
कारण रहा की उनके संपर्क से हमने अनेक पैरासाइट ,उनकी इंटरमीडिएट स्टेज
,इंटरमीडिएट होस्ट आदि को पहली बार देखा/ यह डॉ दत्त की ही कृपा रही की हमने विषय
को इतनी अझी तरह समझ पाए/ जो कुछ किताब मे
पढ़ते थे बह सव माइक्रोस्कोप मे देखने का मौका मिला और जो आपने अपनी ऑंखो से देखा
है उसको भूलना मुश्किल होता है/
क्योकि मै १९७१ मे ही मेडिसिन बिभाग से परजीव मे स्धारंतिरित
कर दिया गया था और mvsc के साथ ही लडको को
प्रैक्टिकल लेने का देमोस्त्रटर होने की
बजह से काम करता था अतः मैंने बिभाग की गतबिधियो को बहुत नजदीक से वा बारीकी से
देखा और महसूस किया /
मैंने देखा की डॉ शाह का काम थ्योरी क्लास लेना
ही था –दोनों UG वा PG का (उस समय बिभाग मे पीएचडी शुरू नहीं हुई थी ) / छात्र
mvsc पराजीव मे करना पसंद नहीं करते थे अतः उस समय कोई भी छात्र अपना थीसिस भी
परजीवी मे नहीं कर रहा था / अतः देखा जाये तो टीचर्स के पास क्लास ले ने के बाद
समय ही समय था /
उस समय हमारे डॉ शाह चैन स्मोकर थे –क्लास जाने
से पहले सिगरेट पीना और आने के बाद सिगरेट
पीना /परन्तु ये कहना पड़ेगा की उनोहने कभी
PG क्लास मे भी सिगरेट नहीं पी / और काफी समय बाद –शायद १९८५ के आस पास –एक बार
उनके खासने पर बलगम के साथ खून आ गया –बह डॉ को दिखाने चले गए / बहा डॉ ने उनको
सिगरेट छोड़ने की सलाह दी / और आशचर्य जनक है की एक चैन स्मोकर ने तत्काल ही पूर्ण
रूप से सिगरेट छोड़ दी / यह निश्चित तोर से उनकी विल पॉवर को दर्शाता है /
डॉ शाह को कहना चाहिए की महफ़िल सजाने का शौक था
/क्लास के बाद उनके कमरे मे कोई न कोई डटा ही रहता था / एक तीन चार टीचर्स का
ग्रुप था जो रोज डिलाइट के पास चाय पीने जाता था ,जिसमे डॉ शाह भी होते थे / डॉ
शाह का शेष समय इंग्लिश की किताबे –ज्यादादर मशहूर उपन्यास – पढने मे बीतता था /कुछ समय क्लास मे
जाने से पहले अपने नोट्स भी पलटते थे /
इसके बिपरीत हमारे डॉ दत्त का समय अपने कमरे मे
विषय की किताब पढने मे, माइक्रोस्कोप मे ,कुछ स्टडी करने मे ही बीतता था / मैंने
उनको स्टील के स्टूल पर लगातार दो तीन घंटे बैठ कर माइक्रोस्कोप मे स्टडी करते हुए
देखा है –यह हमारे कॉलेज के लिए एक अजूबा कह सकते है / अक्सर आप उनको कॉलेज की
लाइब्रेरी मे भी देख सकते थे /
डॉ दत्त दोपहर को खाना भी नाम मात्र को खाते थे
(वह कॉलेज से ८ मील दूर अधारताल मे रहते थे इसलिए विभाग मे ही खाते थे ) / बह ज्यादातर दो ब्रेड की स्लाइस ,एक उबला अंडा
,एक फल (संतरा ,केला, या सेव )लेते थे –और फिर एक कप चाय या काफी / मैंने कभी कभी
डॉ दत्त को अंत मे एक आध सिगरेट पीते हुए भी देखा /
दोनों टीचर्स के स्वाभाव का अंतर सब कोई महसूस कर
सकता था / जंहा एक और हमारे डॉ दत्त हमेशा पढने या पढ़ाने मे, माइक्रोस्कोप मे
,लाइब्रेरी मे, व्यस्त रहते थे वही दूसरी और डॉ शाह को क्लास के बाद जैसे विषय से
कोई मतलब ही नहीं था /
शायद डॉ शाह इसको महज एक नौकरी की तरह लेते थे /
क्योकि खाली समय मे उन्होंने अपने जीवन के बारे मे बहुत कुछ बताया था जिसमे प्रमुख
था की बह उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाके से थे / लखनऊ विश्व विद्यालय से एमएससी
जूलॉजी करने के बाद पीएचडी मे भी एडमिशन ले लिया था ( उस समय बहा मशहूर साइंटिस्ट
डॉ GD Thapar भी टीचर थे )/ उसी समय –करीब १९५४ मे – उन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर
परजीवी का mhow कॉलेज का इंटरव्यू मिला (उस समय वेटरनरी कॉलेज मे पशु चिकत्सा
की डिग्री अनिवार्य नहीं थी और बहुत सारे विषय
मे प्योर साइंस के टीचर आते रहे ) और फिर अपॉइंटमेंट लैटर / उस समय भी नौकरी , पढ़े
लिखो मे भी , एक समस्या थी और जरूरी नहीं
है की पीएचडी करने के बाद भी , आपको फोरन नौकरी मिल जाये – और मिलेगी भी तो बही
असिस्टेंट प्रोफेसर की / अतः सभी संगी साथियों ने सलाह दी की पीएचडी छोड़ कर उनको mhow की
नौकरी ज्वाइन कर लेनी चाहिए / इस तरह उन्होंने mhow मे नौकरी की शुरू आत की जंहा
परजीवी path, bact , para, का ही एक हिस्सा था / १९६५ मे बह प्रोफेसर होकर जबलपुर
आये जंहा पर परजीवी को एक अलग विभाग बनाने की जिम्मेदारी भी उन पर आ गई /
यू तो डॉ शाह मेरिट की बहुत बात करते थे –उनके
पास इसके बहुत से उदहारण भी थे , जहा वैज्ञानिक
असिस्टेंट प्रोफेसर रहने के बाबजूद केबल अपनी रिसर्च वा शोथ पत्रों से देश विदेश
मे मशहूर हो गए / परन्तु ऐसा लगता है की उनके अंदर कही न कही इस बात की टीश थी की
उनके ऊपर डॉ दत्त को प्रोफेसर बनाकर बैठा
दिया गया / शायद इसीलिए जबलपुर मे उनको अपना भविष्य अंधकारमय दीखता था क्योकि डॉ
दत्त १९७९ मे रिटायर होते अतः डॉ शाह को प्रोफेसर शिप पाने के लिए ४-६ साल और इंतजार करना पड़ता / शायद
इसीलिए डॉ शाह ने जबलपुर छोड़ने का अपना मन बना लिया हालाँकि जबलपुर मे उनके बहुत सारे
दोस्त थे और छात्रों मे भी उनका बहुत आदर
था / इसीलिए बह समान्तर पद ,एसोसिएट प्रोफेसर
पर ,पशु चिकत्सा कॉलेज ,पन्त नगर मे १९७४ मे चले गए- बहा फर्क यही था की
परजीवी को एक स्वंतंत्र विभाग बनाया जा रहा था और उनके उपर कोई नहीं था / हां !
प्रोफेसर की पोस्ट creat करके जल्द भरने की उम्मीद भी दिलाई गयी थी / उस समय उनकी
उम्र करीब ४३ साल की रही होगी /
जैसा मे उपर ही कह चुका हू की डॉ शाह मे UG को अपनी और
आकर्षित करने की अदभुत छमता थी /येही बात पंतनगर मे भी साबित हुई / उन्ही के आकर्षण
से उस समय के तीन मेधावी छात्रों –डॉ पाठक, डॉ देवेन्द्र कुमार, वा डॉ जुयाल ने
परजीवी मे mvsc करने का मन बनाया (हालाँकि
उनोहने डॉ भाटिया बा डॉ गौर के अंडर मे यह पढाई की क्योकि तब तक डॉ शाह ने पंतनगर छोड़ दिया था ) और परजीवी विज्ञानं मे अपनी अलग पहचान बनाई / यहाँ
यह बताना भी उचित होगा की डॉ JP DUBEY अमेरिका भी डॉ शाह के UG के mhow के
विद्यार्थी ही थे /
परन्तु एक आश्चर्य है की जंहा डॉ शाह UG छात्रों को इतना चुम्बकीय
ढंग से आकर्षित कर पाए , बही उनका ये जादू उनके PG छात्रों पर नहीं चल पाया / उनके
PG छात्रों की लिस्ट बहुत बड़ी नहीं है – डॉ HOP श्रीवास्तव ,SB घोषाल ,PC जैन ,DK
पेठकर ,KP सिंह , RK चौधरी वा RK शर्मा /
इसमे डॉ hop वा चौधरी को छोड़कर उनके किसी भी
छात्र से बहुत मधुर सम्बन्ध नहीं रहे / क्योकि मे भी उसी विभाग की फैकल्टी मे था
अतः मे भी उन PG छात्रों की परेशानियों का गवाह रहा हूँ / मुख्या रूप से जो बात
निकल कर आती है बह यही है की बह छात्र को अपने हाल पर रिसर्च करने को छोड़ देते थे / लेकिन अगर
रिजल्ट उम्मीद के मुताबिक नहीं आये तो उस छात्र पर विश्वास नहीं करते थे और कई बार
उसको दुबारा करने का हुक्म दे देते जब की छात्र का कहना रहता की उसने पूरी
ईमानदारी से कार्य किया है / यहाँ तक की पीएचडी की थीसिस लिखते समय भी दूसरे टीचर को देखने को कह दिया परन्तु जब थीसिस फाइनल
टाइपिंग की बात आई तो उसको पूरा नकार दिया और फिर से लिखने को मजबूर कर दिया –चाहे
उससे छात्र का कितना ही नुकसान हो जाये /
इसे नियत का विधान नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे की
जिन डॉ दत्त की वजह से डॉ शाह ने जबलपुर १९७४ मे छोड़ा था उन्ही डॉ दत्त ने भी कुछ माह के अन्तराल से
१९७४ मे ही जबलपुर छोड़ दिया / जबलपुर छोड़
ने की डॉ दत्त की मुख्य वजह शायद यहाँ का नॉन अकादमिक माहौल था / बह यहाँ से ICAR गए और वहा से लुधिअना –जहा उनोहने अपने प्रोफेसर बा हेड का शेष कार्यकाल पूरा किया
/
चूँकि पुस्तक के इस भाग मे हम परजीवी के दो
पुरोंधाओ का जिक्र कर रहे है अतः यहाँ यह बताना उचित होंगा की PG छात्रों की डॉ
दत्त की भी लिस्ट बहुत बड़ी नहीं है -डॉ
माथुर,मालवीय ,गौर, tripathy (IVRI ),डॉ श्रीवास्तव, avashati ,निखाले , अग्रवाल (जबलपुर ), रेड्डी ,सिंह (लुधिअना )/
परन्तु यहाँ पर इन दोनों साइंटिस्ट्स मे एक बहुत बड़ा फर्क
नजर आता है / जहा एक बार कोई डॉ दत्त के संपर्क मे आ गया बह उनका मुरीद हो गया –उसने
ऐसा वैज्ञानिक, ऐसा पथ प्रदर्शक पाने पर अपने को धन्य समझा / इसका मुख कारण रहा है डॉ दत्त ने
अपने को इन छात्रों के साथ आत्म सात कर लिया – उनको इस तरह पढाया की बह यह विद्या हमेशा याद रख पाए-
उनकी मुस्किल को अपनी समझा / थीसिस लिखने
मे भी उनकी बातो को सही स्थान दिया /
यहाँ मे
डॉ दत्त के बारे मे ज्यादा नहीं लिख रहा हू क्यों कि उन पर एक पूरी किताब लिखी जा
चुकी है और मे आग्रह करूंगा की और अधिक जानकारी के लिए उस किताब को जरूर पढ़े /
एक बात की तारीफ यहाँ जरूर करनी पड़ेगी की लगभग
४-५ साल तक डॉ दत्त बा डॉ शाह जबलपुर मे एक ही विभाग मे साथ साथ रहे परन्तु
उनोंहने कभी भी ईएसआई कोई बात नहीं की जिससे लगे की इन दोनों मे कुछ differences
है / हां यह जरूर रहा की जबतक ये दोनों जबलपुर मे रहे- डॉ दत्त का सारा ध्यान
विभाग को बढ़ाने मे रहा –नये माइक्रोस्कोप ख़रीदे गए , रिसर्च स्कीम ICAR को भेजी गई
,जो उनके जाने के बाद डॉ सहस्राबुधे ने चलाई (वही विभाग की पहली स्कीम थी )/ इसके बिपरीत डॉ शाह
का काम क्लास लेना ही था /
डॉ दत्त के जाने के बाद ,प्रोफेसर की पोस्ट
advertise की गई और डॉ शाह पंतनगर से पहले
इंटरव्यू के लिए और फिर ज्वाइन करने वा रहने
को जबलपुर आये / परन्तु इस घटना ने इस बात को नकार दिया की उनके लिए पोस्ट
का कोई महत्व न होकर साइंटिफिक अचिएवेमेन्त्स का ही महत्व है /
जब डॉ शाह ने जबलपुर मे 1976 मे प्रोफेसर बा हेड
पर ज्वाइन कर लिया तो शायद उनको भी लगा की विभाग मे रिसर्च भी चलनी चाहिए / यह बात इसलिए और जरूरी हो गई क्योकि १९४८ मे बना यह
कॉलेज १९६४ से जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्व विद्यालय के अंतर गत आ गया था जिसका
उद्देश्य केवल टीचिंग न होकर ,रिसर्च बा उसका विस्तार भी हो गया था /
क्योकि डॉ शाह एक प्रोतोजूलोगिस्ट थे अतः उनोहने
इसी विषय मे कार्य करना चाहा / इसमे आगे आये उनके प्रिय mhow के छात्र डॉ दुबे जो
इस समय अमेरिका मे कोच्सिडिया की बिभिन्न प्रजातीय पर शोध कर रहे थे / उनने अपने
कुछ पेपर डॉ शाह को इस बारे मे भेजे और शायद सलाह दी की बह सर्कोच्य्स्तिस पर
कार्य करे क्यों की इस बारे मे भारत मे बहुत कुछ किया जा सकता है / डॉ शाह ने अपने
छात्रों को sarcocystis पर थीसिस प्रॉब्लम दिया और बाद मे एक ICAR की स्कीम भी
विभाग मे लेकर आये /
एक बात और उभर कर आई की डॉ शाह बोलने मे लेक्चर देने मे बहुत माहिर
थे उनके लेक्चर को वैज्ञानिक बड़े मनोयोग
से सुनते थे और कई लोग इसी वजह से उनके मुरीद हो गए /
इस कॉलेज मे एक जनरल कहावत हो गई थी की यहाँ के
दो फैकल्टी सदस्य ने अपने बोलने के दम पर ही सारे देश मे अपनी धाक जमा रखी है / एक थे डॉ शाह और दूसरेडॉ वेगड़ –पैथोलॉजी के
प्रोफेसर / बाद मे इन दोनों ने अपनी अपनी सोसाइटी के प्रेसिडेंट के पद को
भी सुशोभित किया / और अपनी वाक पटुता से
कॉलेज से बाहर देश मे ज्यादा प्रसिद्ध पाए /
डॉ शाह जून १९९१ मे उम्र के ६० वर्ष पूर्ण करने
पर प्रोफेसर की पोस्ट से रिटायर हो गए / परन्तु उनका पढ़ाने का शौक बरक़रार रहा
इसीलिए उनने पढाना बंद नहीं किया और काफी समय तक पढ़ाते रहे /
फिर आया १९९४ / उस समय तक मुझको नेशनल फेलो का
icar (यह पोस्ट प्रोफेसर के समतुल होती है ) का पत्र आ गया था और आर्डर आने मे कुछ
वक्त था / इसी समय के आस पास JNKVV की प्रोफेसर की पोस्ट भी advertise हो गई /
उसमे यहाँ से हम तीन लोग कैंडिडेट थे और बाहर से कोई नहीं था (शायद उनेह अंदाज था
की यहाँ बालो का ही सिलेक्शन होगा )/
अगर
सेनिओरिटी से देखा जाये तो पहले थे डॉ जोशी ,फिर डॉ श्रीवास्तव और आखिर मे मै/
परन्तु जब दूसरेलोग मेरिट से लिस्ट बनाते थे तो उसमे मेरा नाम पहले रखा जाता था
/इसका कारण भी था की मे पुरे विश्व विद्यालय मे पहला टीचर था जो इस अवार्ड के लिए
सेलेक्ट हुआ था / दूसरा कारण था की मे हिसार के कृषि विश्व विद्यालय मे प्रोफेसर परजीवी पर सेलेक्ट
हो गया था और इसके ऑर्डर्स भी आ चुके थे /
फिर इंटरव्यू के समय पता लगा की इंटरव्यू लेने
बाले नहीं आ रहे है (कुछ लोगो का यह भी सोच रहा की ऐसा जान बूछ कर किया गया ) / तब
इंटरव्यू मे हमारे डॉ शाह को एक्सपर्ट के रूप मे बुलाया गया / दूसरेथे हमारे डॉ
भिल्गओंगर –जिनोहने १९८१ मे हमारे विभाग से ही पीएचडी किया था / और उस समय के
कुलपति थे डॉ जोहर जिनोहने mhow से ही bvsc की थी – या तो डॉ श्रीवास्तव के साथ या
एक आध साल के अन्तराल से / और हां ! ये डॉ शाह के भी छात्र रह चुके थे यानि डॉ शाह
इस इंटरव्यू मे बहुत ही अहम् भूमिका मे थे /
जब कॉलेज मे यह बात फैल गई कि इंटरव्यू में डॉ
शाह को एक्सपर्ट के रूप मे बुलाया गया है और इंटरव्यू देने बाले है डॉ जोशी , HOP
श्रीवास्तव और अग्रवाल – तो सबका यह सोच रहा की देखे अब डॉ शाह क्या करते है ?
यानि अब आया ऊट पहाड़ के नीचे / लोगो का सोच रहा की अगर डॉ शाह अपनी शाख बचाना
चाहते है –हमेशा कहते रहते है की मे तो मेरिट को तवजो देता हू – तो उन्हें डॉ
अग्रवाल को सेलेक्ट करना पड़ेगा ,और अगर सेनिओरिटी से फैसला होता है तो डॉ जोशी को
पहले रखना पड़ेगा / लेकिन वह hop को छोड़ नहीं सकते इस लिए पैनल बना दिया जायेगा
जिससे हर हालमे hop को एक साल से पहले ही प्रोफेसर की पोस्ट मिल जाएगी / क्योकि
सितम्बर १९९४ मे डॉ जोशी रिटायर हो रहे थे / और मे या तो हिसार चला जाऊंगा या कुछ
महीने मे नेशनल फेलो पर ज्वाइन कर लूँगा / इनमे से ही कोई विकल्प सामने आने की
चर्चा थी / इसका एक और कारण था की डॉ जोहर
भी डॉ शाह के छात्र रहे थे और उनमे इतनी हिम्मत नहीं थी की बह सही बात को न माने /
परन्तु जो लोग डॉ शाह को और करीब से जानते थे उनका कहना था की देखना डॉ hop का ही
सिलेक्शन होगा /
और अंत मे जो बात सामने आई बह येही थी की सारी
बातो को ताक पर रख कर hop का प्रोफेसर पर अपॉइंटमेंट के ऑर्डर्स हो गए / मुझे कुछ
मित्रो ने कहा भी की इस आर्डर को कोर्ट मे चैलेंज कर दो पर मे अपना समय बर्बाद
नहीं करना चाहता था और मैंने भी हिसार कर रास्ता अखितियर किया /
परन्तु इस परिणाम ने डॉ जोशी को बुरी तरह तोड़ कर
रख दिया / उनको अपने वा डॉ शाह के संबंधो से पूरी ऊम्मीद थी की उनको प्रोफेसर की
पोस्ट मिल जाएगी और पैनल बनेगा सेनिओरिटी से जिससे डॉ hop को सितम्बर मे डॉ जोशी
के रिटायर होने पर प्रोफेसर की पोस्ट मिल जाएगी / और मे या तो नेशनल फेलो ज्वाइन
कर लूँगा या हिसार चला जाऊंगा /
परन्तु इतना सरल सा गरित न मानते हुए इन सब ने डॉ
श्रीवास्तव का प्रोफेसर पर सिलेक्शन कर दिया / इस घटना ने बहुत ही भद्दे ढंग से इस
बात को उजागर कर दिया की डॉ शाह, डॉ hop के इंटरेस्ट को टाल ही नहीं सकते है /
उनके लिए मेरिट की बाते सिर्फ अपनी इमेज बनाने के लिए है अंदर से उनके लिए इन बातो का कोई महत्व नहीं है
/
नियत किसी को कहा जाकर मारती है –किसी को नहीं
पता / कहा डॉ दत्त का नाम दिन वा दिन और रोशन होता गया –उनके नाम से लेक्चर शुरू
हुए , गोल्ड मैडल शुरू हुआ / कहा हमारे डॉ शाह धीरे धीरे गुमनामी की चादर मे गुम होते
गए /
कुछ लोगो का मूड यह सब बाते पढ़ कर ख़राब हो गया
होगा – उनमे मे भी एक हू / बार बार येही सोच उठती है की एक इतना उम्दा टीचर , उसको
hop के प्रेम ने इतना रुसवा कर दिया / और हमारे डॉ जोशी इस बात को आज तक नहीं भूल
पाए की किसतरह hop के मोह ने उनको प्रोफेसर नहीं बनने दिया / पुरे विभाग मे बस दो
ही टीचर रहे –एक डॉ जोशी और दूसरे डॉ
घोषाल – जो सारी qualification होने के बाबजूद प्रोफेसर नहीं हो पाए और एसोसिएट
प्रोफेसर पर ही रिटायर हो गए / दोनों को ही डॉ शाह से किसी न किसी वजह से गिला रहा
है / लेकिन ऐसा ही है हमारा ये कृषि विश्व विद्यालय , इसी लिए जवाहरलाल नेहरु
कृषि विश्व विद्यालय का नाम करण कर दिया गया
– जहा न कही विद्या ,बुधि बगेरह /